कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 33 प्रेमचन्द की कहानियाँ 33प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तैंतीसवाँ भाग
ईश्वरचंद्र की पत्नी एक ऊँचे और धनाढ्य कुल की लड़की थी, और ऐसे कुलों की मर्यादा-प्रियता तथा मिथ्या गौरव-प्रेम से सम्पन्न थी। यह समाचार पाकर डरी कि पति महाशय कहीं इस झंझट में फँसकर कानून से मुँह न मोड़ लें लेकिन जब बाबू साहब ने आश्वासन दिया कि यह कार्य उनके कानून के अभ्यास में बाधक न होगा, तो कुछ न बोली।
लेकिन ईश्वरचंद्र को बहुत जल्द मालूम हो गया कि पत्र-सम्पादन एक बहुत ही ईर्ष्या-युक्त कार्य है, जो चित्त की समस्त वृत्तियों का अपरहण कर लेता है। उन्होंने इसे मनोरंजन का एक साधन और ख्याति-लाभ का एक यंत्र समझा था–उसके द्वारा जाति की कुछ सेवा करना चाहते थे। उससे द्रव्योपार्जन का विचार तक न किया था। लेकिन नौका में बैठकर उन्हें अनुभव हुआ कि यात्रा उतनी सुखद नहीं, जितनी समझी थी। लेखों के संशोधन, परिवर्द्धन और परिवर्त्तन, लेखक-गण से पत्र-व्यवहार, और चित्ताकर्षक विषयों की खोज और सहयोगियों से आगे बढ़ जाने की चिंता में उन्हें कानून के अध्ययन करने का अवकाश ही न मिलता था। सुबह किताबें खोलकर बैठते कि सौ पृष्ठ समाप्त किए बिना कदापि न उठूँगा, किन्तु ज्योंही डाक का पुलिंदा आ जाता, वह अधीर होकर उस पर टूट पड़ते, किताब खुली की खुली रह जाती थी। बार-बार संकल्प करते कि अब नियमित रूप से पुस्तकावलोकन करूँगा, और एक निर्दिष्ट समय से अधिक सम्पादन कार्य में न लगाऊँगा। लेकिन पत्रिकाओं का बंडल सामने आते ही दिल काबू के बाहर हो जाता।
पत्रों की नोक-झोंक, पत्रिकाओं के तर्क-वितर्क, आलोचना-प्रत्यालोचना, कवियों के काव्य-चमत्कार, लेखकों का रचना-कौशल इत्यादि सभी बातें उन पर जादू का काम करतीं। इस पर छपाई की कठिनाइयाँ, ग्राहक-संख्या बढ़ाने की चिंता और पत्रिका को सर्वांग-सुन्दर बनाने की आकांक्षा और भी प्राणों को संकट में डाले रहती थी। कभी-कभी उन्हें खेद होता कि व्यर्थ की इस झमेले में पड़ा। यहाँ तक कि परीक्षा के दिन सिर पर आ गए, और वह इसके लिए बिलकुल तैयार न थे। वह उसमें सम्मिलित न हुए। मन को समझाया कि अभी इस काम का श्रीगणेश है, इसी कारण ये सब बाधाएँ उपस्थित होती हैं। अगले वर्ष यह काम एक सुव्यस्थित रूप में आ जायगा, और तब मैं निश्चिंत होकर परीक्षा में बैठूँगा। पास कर लेना क्या कठिन है। ऐसे बुद्वू पास हो जाते हैं, जो एक सीधा-सा लेख भी नहीं लिख सकते, तो क्या मैं ही रह जाऊँगा?
मानकी ने उसकी ये बातें सुनीं, तो खूब दिल के फफोले फोड़े। मैं तो जानती थी कि यह धुन तुम्हें मटियामेट कर देगी। इसीलिए बार-बार रोकती थी, लेकिन तुमने मेरी एक न सुनी। आप तो डूबे ही, मुझे भी ले डूबे। उनके पूज्य पिता बिगड़े, हितैषियों ने भी समझाया- अभी इस काम को कुछ दिनों के लिए स्थगित कर दो; कानून में उत्तीर्ण होकर निर्द्वन्द्व देशोद्वार में प्रवृत्त हो जाना। लेकिन ईश्वरचंद्र एक बार मैदान में आकर भागना निंद्य समझते थे। हाँ, उन्होंने दृढ़ प्रतिज्ञा की कि दूसरे साल परीक्षा के लिए तन मन से तैयारी करूँगा।
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